29 नियम व्याख्या : समाज के 29 नियमों में पांचवां नियम (संतोष) भावार्थ सहित
//संतोष रखना //
संतोष रखना : अपने ही परिश्रम के द्वारा जो यथा कर्मानुसर फल मिल जाये उसी फल में ही संतुष्ट रहना ही संतोष कहलाता है। इसक विपरीत धन प्राप्ति के लिए दिन रात होने वाली इच्छा का प्रसार ही लोभ कहलाता है। लोभ से होने वाले दुःख का कोई आरपार नहीं है। एक वस्तु की प्राप्ति हो जानेपर झट दूसरी वस्तु प्राप्ति की इच्छा हो जातीहै। उसी प्रकार ‘संतोषादनुत्तम सुखलाभः’ संतोष से अतिउतम सुख का लाभ होता है क्योंकि यथा आवश्यकतानुसार जो कुछ भी प्राप्त हो जाता है उनमें ही संतुष्टता होती है।
कहा भी है- गोधन गजधन बाजी धन और रत्न धन खान। जो आवैसंतोष धन, सब धन धूड़ समान।। संतोषी सदा सुखी और लोभी सदा दुःखी ही रहता है।
गुरु जाम्भोजी ने 29 नियम में संतोष को भी स्थान दिया है। धन, दौलत, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि सभी कभी कुछ होते हुए भी संतोष रहित लोभी मनुष्य का जीवन नरकमय ही बन जाता है। आखिर यह जीवन इस प्रकार की बर्बादी के लिए तो नहीं मिला है। इसका सदुपयोग तो करना ही चाहिये।
इस जीवन को प्राप्त करके सुख की प्राप्ति तो होनी ही चाहिये। इसीलिए सभी शास्त्रों से सहमत यह संतोषमय जीवन जीने की कला सिखलाई है। इसे धारण करके कोई भी चाहे धनी हो या निर्धन, छोटा हो या बड़ा हो, अपने जीवन को सफल बना सकता है।
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