बिश्नोई समाज के 29 नियम : पहला नियम (तीस दिन सूतक रखना) भावार्थ सहित
तीस दिन सूतक रखना : तीस दिन तक प्रसूता स्त्री को गृह कार्य से पृथक रखना चाहिये। उन्नतीस नियमो में यह पहला नियम है। मानव के शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की यही नींव है। यहीं से माानव जीवन प्रारम्भ होता है।
यदि यह प्रारम्भिक काल ही बिगड़ जायेगा तो फिर आगे मानवता का विकास कैसे हो सकेगा। शायद दुनियां में प्रथम बार ही जम्भेश्वरजी ने यह तीस दिन सूतक का नियम बतलाया है। वैसे सूतक मानते तो सभी हैं किन्तु तीस दिन का किसी भी समाज में नहीं मानते और न ही इस रहस्य को जानते ही हैं।
विश्नोईयों के लिए बालक जन्म का सूतक तो तीस दिन का बतलाया तथा मृत्यु का सूतक तीन ही दिन का बतलाया है। इनमें कुछ रहस्य छुपा हुआ है, इस पर विचार करके देखना चाहिये। जब बालक दस महीने तक गर्भवास में निवास करता है, पश्चात समय आने पर जन्म लेता है उस समय माता व बालक दोनों ही अपवित्र अवस्था में हो जाते हैं। शरीर गर्भ से बाहर आया है जिससे गर्भ के सभी भाग वह साथ में लेकर आया है तथा उसकी माता के भी शरीर के अन्दर कमजोरी विकृति पैदा हो गयी होती है। इन दोनों को स्वस्थ तथा पवित्र होने में भी समय चाहिये, समय पाकर ही पवित्रता आ सकती है। इसीलिये तीस दिनों का समय रखा गया है जो सूतक रूप में बताया है तथा तीस दिन पूर्ण हो जाने पर ही संस्कार करके उसे विश्नोई बनाया जाता है।
मृत्यु का सूतक तीन ही दिन का बताया है क्योंकि वहां पर तो कुछ शेष बचता नहीं है। जीव तीन दिन के पश्चात चला ही जाता है और शरीर तो उसी दिन ही जमीन को समर्पित हो जाता है फिर इतना लम्बा पातक किसके लिए रखा जावे। इसीलिए तीसरे दिन ही जीव की समारोहपूर्वक विदाई तथा मिलन हो जाता है उसी दिन पाहल हवन द्वारा संस्कार कर दिया जाता है। ‘‘आज मूवा कल दूसर दिन है जो कुछ सरै तौ सारी’’ (शब्दवाणी)।
दूसरी बात यह है कि तीस दिन तक प्रसूता स्त्री को गृहकार्य से पृथक इसीलिए रखा जाता है कि उसे पूर्णतया विश्राम चाहिये क्योंकि बच्चा पैदा होने से उसके शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ जाती है। उस कमजोरी की पूर्ति के लिए एक महीना पूर्णतया विश्राम तथा साथ में पौष्टिक भोजन भी दिया जाना आवश्यक है और ऐसा करते भी हैं। इसमें दो कारण हैं। प्रथम तो यह है कि बच्चे की माता का शरीर पुनः क्षति की पूर्ति कर लेगा।
यदि ऐसा न हो सकेगा तो कमजोर शरीर से न तो कुछ कार्य ही हो सकेगा और न ही शरीर स्वस्थ ही रह सकेगा। अनेकानेक बीमारियां शरीर को पकड़ लेगी, जिससे कभी भी अकाल मृत्यु हो सकती है। मातृशक्ति तो खेती की तरह होती है, उस खेती को सुधारा जायेगा, उसे खाद पानी आदि देते रहोगे तो वह नित नयी फसल देती रहेगी अन्यथा खेती अच्छा फल नहीं दे सकेगी।
दूसरा लाभ यह होता है कि नवजात शिशु को अपनी मां का दूध भरपूर मात्रा में मिल सकेगा। उस समय का अपनी ही माता का पिया हुआ अमृतमय दुग्ध भविष्य में शरीर, मन तथा बुद्धि निर्माण में सहायक होता है। यदि ऊगते हुए वृक्ष को ही पूर्णतया खाद पानी नहीं मिलेगा तो वह कभी भी विशाल वृक्ष नहीं बन सकेगा। विश्नोईयों में यह परम्परा प्राचीनकाल से ही इस नियम के बदौलत चलती आ रही है जिससे सुन्दर बलिष्ठ जवान पैदा होते आये हैं। अन्य लोगों में से इनकी पहचान हो जाती थी। आजकल इन नियमों में कुछ ढ़ील हो जाने से वह बात अब नहीं दिखाई देती।
यदि यह प्रारम्भिक काल ही बिगड़ जायेगा तो फिर आगे मानवता का विकास कैसे हो सकेगा। शायद दुनियां में प्रथम बार ही जम्भेश्वरजी ने यह तीस दिन सूतक का नियम बतलाया है। वैसे सूतक मानते तो सभी हैं किन्तु तीस दिन का किसी भी समाज में नहीं मानते और न ही इस रहस्य को जानते ही हैं।
विश्नोईयों के लिए बालक जन्म का सूतक तो तीस दिन का बतलाया तथा मृत्यु का सूतक तीन ही दिन का बतलाया है। इनमें कुछ रहस्य छुपा हुआ है, इस पर विचार करके देखना चाहिये। जब बालक दस महीने तक गर्भवास में निवास करता है, पश्चात समय आने पर जन्म लेता है उस समय माता व बालक दोनों ही अपवित्र अवस्था में हो जाते हैं। शरीर गर्भ से बाहर आया है जिससे गर्भ के सभी भाग वह साथ में लेकर आया है तथा उसकी माता के भी शरीर के अन्दर कमजोरी विकृति पैदा हो गयी होती है। इन दोनों को स्वस्थ तथा पवित्र होने में भी समय चाहिये, समय पाकर ही पवित्रता आ सकती है। इसीलिये तीस दिनों का समय रखा गया है जो सूतक रूप में बताया है तथा तीस दिन पूर्ण हो जाने पर ही संस्कार करके उसे विश्नोई बनाया जाता है।
मृत्यु का सूतक तीन ही दिन का बताया है क्योंकि वहां पर तो कुछ शेष बचता नहीं है। जीव तीन दिन के पश्चात चला ही जाता है और शरीर तो उसी दिन ही जमीन को समर्पित हो जाता है फिर इतना लम्बा पातक किसके लिए रखा जावे। इसीलिए तीसरे दिन ही जीव की समारोहपूर्वक विदाई तथा मिलन हो जाता है उसी दिन पाहल हवन द्वारा संस्कार कर दिया जाता है। ‘‘आज मूवा कल दूसर दिन है जो कुछ सरै तौ सारी’’ (शब्दवाणी)।
दूसरी बात यह है कि तीस दिन तक प्रसूता स्त्री को गृहकार्य से पृथक इसीलिए रखा जाता है कि उसे पूर्णतया विश्राम चाहिये क्योंकि बच्चा पैदा होने से उसके शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ जाती है। उस कमजोरी की पूर्ति के लिए एक महीना पूर्णतया विश्राम तथा साथ में पौष्टिक भोजन भी दिया जाना आवश्यक है और ऐसा करते भी हैं। इसमें दो कारण हैं। प्रथम तो यह है कि बच्चे की माता का शरीर पुनः क्षति की पूर्ति कर लेगा।
यदि ऐसा न हो सकेगा तो कमजोर शरीर से न तो कुछ कार्य ही हो सकेगा और न ही शरीर स्वस्थ ही रह सकेगा। अनेकानेक बीमारियां शरीर को पकड़ लेगी, जिससे कभी भी अकाल मृत्यु हो सकती है। मातृशक्ति तो खेती की तरह होती है, उस खेती को सुधारा जायेगा, उसे खाद पानी आदि देते रहोगे तो वह नित नयी फसल देती रहेगी अन्यथा खेती अच्छा फल नहीं दे सकेगी।
दूसरा लाभ यह होता है कि नवजात शिशु को अपनी मां का दूध भरपूर मात्रा में मिल सकेगा। उस समय का अपनी ही माता का पिया हुआ अमृतमय दुग्ध भविष्य में शरीर, मन तथा बुद्धि निर्माण में सहायक होता है। यदि ऊगते हुए वृक्ष को ही पूर्णतया खाद पानी नहीं मिलेगा तो वह कभी भी विशाल वृक्ष नहीं बन सकेगा। विश्नोईयों में यह परम्परा प्राचीनकाल से ही इस नियम के बदौलत चलती आ रही है जिससे सुन्दर बलिष्ठ जवान पैदा होते आये हैं। अन्य लोगों में से इनकी पहचान हो जाती थी। आजकल इन नियमों में कुछ ढ़ील हो जाने से वह बात अब नहीं दिखाई देती।
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अमूल्य राय से हमें अवगत करायें. जिससे हमें आगे लिखने का साहस प्रदान हो.
धन्यवाद!
Join Us On YouTube