बिश्नोई समाज के 29वें नियम ( लील न लावे अंग, देखते दूर ही त्यागे ) पर आधारित आलेख।
लील न लावे अंग, देखते दूर ही त्यागे. |
लील न लावे अंग, देखते दूर ही त्यागे
लील न लावे अंग, देखते दूर ही त्यागे। लीला - सृष्टि - जगत - संसार तथा सांसारिक इच्छाओं और वस्तु वासनाओं के बंधन । न लावै अंग-कभी अंगीकार न करे - निर्लिप्त रहें। देखते दूर ही त्यागे - सांसारिक इच्छाओं और वस्तु वासनाओं के माया मोह को, दूर से ही त्याग करे। अर्थात् इस प्रकार इस नियम का अर्थ यह हुआ |"मनुष्य को सांसारिक इच्छाओं और वस्तु भावनाओं से रहित व सांसारिक माया मोह के बंधनों से मुक्त रहकर संसार को ही सब कुछ व नित्य समझ कर- उसे अंगीकार न करना। संसार में वैराग्य भाव से रहकर निष्काम भाव से कर्म कर व परोपकार करते हुये सदैव चिदानन्द अवस्था को प्राप्त करना।"
भगवान जम्भेश्वर ने सृष्टि - जगत संसार को "लील" कहा है और जो यहाँ जगत में घटित हो रहा है उसे भगवान की लीला मानते हैं। लीला का अर्थ होता है खेल। मनुष्य हर खेल में आनन्द लेता है क्योंकि खेल आनन्द प्राप्ति हेतु ही होता है। खेल में हानि लाभ की विशेष बात नहीं होती है। इसलिए मनुष्य इस में गंभीर नहीं होता है और आनन्द लेने के लिए खेलता इस तरह सृष्टि के खेल से जो आनन्द प्राप्त होता है उसको भगवान जंभेश्वर ने "लालू" कहा है और जो इस लीला में आनन्द ले उस भगवान को लीलंग' कहा है - अर्थात् परमात्मा लीलंग है। अवतार रूप में जब-जब परमात्मा जगत में आये -तो उनके जगत में हुए कार्यों को - भारत में हर वर्ष लीला के नाम से जैसे रामलीला, कृष्णलीला आदि के नाटक का खेल रचकर - हम लोग उसमें आनन्द लेते हैं। भगवान जम्भेश्वर के दर्शन शास्त्र के अनुसार इस संसार में जो हो रहा है वह एक भगवान की लीला है खेल है। इसलिए मनुष्य को संसार को एक लीला खेल समझते हुए इसमें गम्भीर नहीं हो जाना चाहिए।
इस लीला में- खेल में उसे आनन्द लेना चाहिए मनुष्य इस संसार में आनन्द चित्त कब हो सकता है जब वह इस संसार को भगवान की लीला-खेल समझे। खेल मनुष्य कब समझ सकता है? जब वह सांसारिक माया मोह के बन्धनों से मुक्त रहे, अर्थात् बंधन रहित रहे। इस बंधन रहित होने के भाव को ही वैराग्य कहा जाता है अर्थात् सांसारिक विषय वासनाओं और इच्छाओं से उदासीन होना ही वैराग्य है। जब मनुष्य इस जगत में वैराग्य भाव से रहता है तो वह एक रस रहता हुआ आनन्द चित्त रहता है। इस निरपेक्ष भाव से रहने पर संसार की स्वाभाविक और प्राकृतिक घटनाओं के क्रम को भली भांति समझने पर दुःख में विचलित नहीं होता है और सुख में अहंकार वश वैभव प्रदर्शन नहीं करता है तथा वह धन और राजसी ठाठ बाट को उसकी वास्तविकता स्पष्ट समझते हुए उसे तुच्छ व क्षणिक समझकर उससे प्रभावित नहीं होता है। इसीलिये भगवान जम्भेश्वर ने इस नियम में इस लीला -- सृष्टि को समस्त व नित्य मानकर इसे अंगीकार न करने को कहा है। यह तभी हो सकता है जब मनुष्य इस संसार में वैराग्य भाव से संसारिक वस्तुओं व बंधनों से मुक्त होकर यहाँ रहे।
इस नियम में भगवान जम्भेश्वर ने *"लील"* शब्द का प्रयोग किया है। लील शब्द इस नियम का रहस्य भेद है। लील शब्द का वाणी में क्या अर्थ है? यह समझने पर फिर इस नियम के अर्थ को समझने में कठिनाई नहीं है परन्तु इसे पालन करने में जरूर कठिनाई आती है। जो निरन्तर अभ्यास व चैतन्य रहने से सरल हो सकती है। भगवान जम्भेश्वर ने अपनी शब्द वाणी में जहाँ-जहाँ शब्द लील-लील-लिंग का प्रयोग किया है। उसे किस अर्थ में प्रयोग किया है| उसी अर्थानुसार हमें इस नियम में प्रयोग लील शब्द को समझना चाहिये। उन्होंने अपने शब्द शुक्ल हंस की पंक्ति 55 में 'लील' शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया है-
"कुण जाणै महे लीलपति" 67:55 अर्थात् कौन समझता है कि मैं इस लील-सृष्टि का सृजनहार व इसका पति-स्वामी हूँ।
भगवान जम्भेश्वर ने बादशाह सिकंदर लोधी के भेजे दूत के चार प्रश्नों के उत्तर में "अलील" शब्द का उपयोग किया है। यह सबदवाणी का शब्द संख्या 103 पर प्रश्न उत्तर के रूप में निम्नलिखित तरफ से है "कवण स मोमिण कवण स मांण
कवण पुरिष अछै रहिमांण
केणि पुरिष आ जिमी उपाय मुसलमान कहां थी आई? पुर्ण स मोमिण (सारंग) पाणी गाणं अलील पुरिष आ अछै रहिमांण अलख पुरिष आ जिमीं उपाय महमंद थी मुसलमान आई।"
103:1 से 8
अर्थात् भक्त कौन है? पूज्य कौन है? कौन पुरुष अच्छा दयालु है? किस पुरुष ने इस सृष्टि को उत्पन्न किया है? और मुसलमानी मत किससे चला है ?
पवन सुत हनुमान सबसे सच्चा सेवक व भक्त है और भगवान राम (सारंग पाणी) सबसे पूजनीय हैं। अलील-लील रहित सांसारिक बंधनों से अलिप्त अर्थात् संसारिक माया मोह के बंधनों से मुक्त वैराग्य भाव से रहने वाला पुरुष ही सबसे अच्छा दयालु है क्योंकि वही निष्काम भाव से कार्य करता हुआ परोपकार करता है। अलख-अलक्ष्य (सृष्टि रचने में भगवान का कोई लक्ष्य प्रयोजन नहीं है केवल अपनी लीला हित बनाई है)। भगवान ने इस सृष्टि को उत्पन्न किया है। मोहम्मद साहब से मुसलमानी मत चला है। अल्लाह द्वारा सीधा मुस्लिम धर्म नहीं चलाया गया है। नोट - मूल शब्द में सारंग शब्द प्रयोग में नहीं है क्योंकि पद्य में बहुत से शब्द अदृश्य कई बार मात्रा और छन्द आदि के क्रम को ध्यान में रखने के लिए किये जाते हैं।
भगवान जम्भेश्वर ने कलश पूजा मंत्र में भी अपनी ग्याहरवीं पंक्ति में 'अलील' शब्द को इस प्रकार प्रयोग किया है।
"अलील रूपी निरंजनो"। अर्थात् जो मनुष्य अलील संसार से अलिप्त - वैराग्य भाव रूपी हो जाता है वही साक्षात् भगवान बन जाता है, या इसका दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि संसार में सब कुछ लीला करते हुए भी परमात्मा इससे अलिप्त और निर्विकार है।
लील और अलील शब्दों का अर्थ उपरोक्त शब्दों में समझने के बाद लीलू शब्द के अर्थ को भी सबद वाणी में प्रयोग किए गए अर्थ के मुताबिक समझना आवश्यक है। भगवान जम्भेश्वर ने अपने शबद 12 की पंक्ति 13 व 14 में कहा है
"बिली की इंद्री संतोष न होयबा किसन चिरत विणी, काफरा न होयबा लीलू" अर्थात् हरि कृपा बिना बिल्ली कभी संतोष आवृत्ति की नहीं हो सकती। इसी प्रकार नास्तिक मनुष्य संसारिक बंधनों से जकड़ा होने के कारण कभी आनन्द चित्त (लीलू) नहीं हो सकता।
भगवान जम्भेश्वर ने अपने अन्य सबद संख्या 64 की पंक्ति 7 से 9 में लीलू तथा नील शब्द का प्रयोग किया है। यह किस प्रयोजनार्थ उपयोग किया है इसको और भली भांति समझ लेना चाहिए।
जा जा सैतान करै उफारौ तां तां महतक फलियौ नील मध्ये कुचील करिबा, साध संगीणीं थूलूं पोहप मध्ये परमला जोती,ज्यों सुरगमध्य लीलूं।
64:7 से अर्थात् जब जब दुष्ट लोग अहंकार कर नील मध्ये-संसार में कुकर्म करते हैं और साधुओं के साथ अर्थात् सज्जनों के साथ स्थूलता का व्यवहार कर उनको दु:ख देते हैं - तब तब ईश्वर का अवतार होता है है। जिस तरह फूल में स्वभावतः ही सुगन्ध होती है उसी तरह स्वर्ग में स्वभावतः ही आनन्द - (लीला) होता है।
इस शब्द में भगवान जम्भेश्वर ने नील मध्ये कह कर यह शब्द भी सृष्टि-संसार के लिए ही उपयोग किया है। भगवान जम्भेश्वर ने नील-लील-दोनों शब्द संसार-जगत-सृष्टि के लिए ही उपयोग किये हैं।
लील का अर्थ नीला रंग लेना बड़ी स्थूल बात है |जिसके लिए भगवान जम्भेश्वर ने स्वयं भी सावधान किया है। नीला रंग किसी अन्य धर्म विशेष का रंग नहीं है। नीला रंग किसी जीव हत्या या किसी बुरी वस्तु से नहीं बनता है। नीला रंग एक जामुन जैसे बड़े पेड़ के फलों से बनता है। इसमें कोई गंध नहीं होती है। नीला वस्त्र पहनने से स्वास्थ्य नियमों के अनुसार भी मनुष्य के स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। भगवान जम्भेश्वर का सारा उपदेश मनुष्य में सात्विक गुणों की प्रधानता उत्पन्न करने में है जिससे उसे जीवन-मुक्ति और मोक्ष मिल सकें। उन्होंने बाह्य वेष को तो एक आडम्बर व पाखण्ड बताया है। जो जोगी-जोगियों जैसे वेष तो रखते थे, परन्तु कर्म जोगियों जैसे नहीं थे। उनको उन्होंने स्पष्ट शब्दों में उनके इस पाखण्ड का खण्डन किया है। मनुष्य, जीवन में किस रंग के कपड़े पहनता है इस बात को उन्होंने बिल्कुल गौण माना है और इस सम्बन्ध में कहीं भी कोई कथन नहीं किया है। हाँ, जीवन में मोटा वस्त्र पहनना, जो रूखा-सूखा (कड़वा, मीठा) अपने घर में है उसे खाकर संतोष का जीवन सादगी से बिताने पर जरूर बल दिया है।
हरा रंग भी नीला और पीला रंग मिलाने से बनता ऐसे बहुत से अन्य रंग भी हैं जिनमें नीला रंग मिला करके दूसरा रंग बनाया जाता है। इसलिए बहुत से रंग इस नियम का स्थूल अर्थ मानने से निषेधित हो जाते हैं। भगवान जम्भेश्वर की शब्दवाणी में नीले वस्त्र का पहनना कहीं भी निषेध नहीं है। यह परम्परागत, दन्त कथा, अज्ञानता या अन्य धर्मावलम्बियों के प्रभाव में आने के कारण शायद हम मान बैठे हैं। इस नियम की जो सूक्ष्मता है- यह नियम जो जीवन मुक्त कराने में सहायक हो सकता है- यह नियम जो जीवन की विधि जानने में सहायक हो सकता है- यह नियम जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करने में सहायक हो सकता है| ऐसे प्रयोजनशील व सारयुक्त नियम को इतना स्थूल अर्थ देकर हमने इस नियम की महत्वता को बिलकुल गंवा दिया है। इसलिए सब धार्मिक श्रद्धालुओं को, मुमुक्षओं को, बुद्धिजीवियों को, साधु-संतों को और साधारण लोगों को भी इस नियम को उपरोक्त लिखित व्याख्या के अनुसार गंभीरता से सोच समझकर जीवन में पालन करना चाहिए, जिससे यह नियम उनकी भक्ति में उनकी साधना में, उनके कर्म में सहायक बनकर उनको जीवन मुक्ति, जीने की युक्ति व मोक्ष को प्राप्त करने में सहायक हो सके।
नोट: यह लेख बिश्नोई समाज की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाले मासिक पत्रिका "अमर ज्योति" से लिया गई है. इस लेख को ब्लॉग पर प्रकाशित करने का एक मात्र उद्देश्य इस नियम की अन्य व्याख्याओं से इत्र दूसरे पहलु को जाम्भाणी पाठकों बताना मात्र है.
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-रामस्वरूप बिश्नोईएडवोकेट श्री गंगानगर (राज.)
तुम खुद को बुद्धिमान समझते हों यह ख़ाली तुम्हारा भ्रम हैं लील ने लावे अंग, देखते दुर ही त्यागें यह नीले रंग के वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए ही कहां गया हैं तुम बिश्नोई समाज के बारे में खास जानकारी नहीं रखते हों तुम्हें क्या और कैसे समझाते एडवोकेट गिरी कोर्ट में उचित है सामाजिक मुद्दों पर नहीं करें कृपया ध्यान दें उचित सलाह दी जा रही हैं अन्यथा युवाओं के कोप भाजन हो सकते हों तुम ग़लत बात नहीं करें !! धन्यवाद
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