रूंख लीला नहीं घावै | बिश्नोईयों के 29‌ धर्म नियम

रूंख लीला नहीं घावै : बिश्नोईयों के 29‌ धर्म नियम


बिश्नोई समाज का बीसवां नियम (रूंख लीला नहिं घावै) भावार्थ सहित  

रूंख लीला नहिं घावै :  हरा वृक्ष नहीं काटना चाहिए, क्योंकि वृक्ष हरा है, दिन-रात बढ़ता है, हवा जल भोजन आदि ग्रहण करता है। ये आवश्यक वस्तुयें नहीं मिलने पर सूख जाता है यानी मर जाता है। मनुष्यों की भाँति चल फिर नहीं सकतातो क्या हुआ चेतन शक्ति वाला तो है ही। तो फिर उसको काटने का यह मतलब हुआ कि आप जीवों का नाशकर रहे हैं। यह जीव हिंसा ही होती है। सभी जीवपरोपकारी ही होते हैं 

उनका अस्तित्व बहुत ही आवश्यक होता है कोई एक जाती विशेष लुप्त हो जाती है तो जीवों का संतुलन बिगड़ जाता है जिससे किसी जीव विशेष की वृद्धि हो जाती है जिससे उपद्रव फैल जाता है। इसी परोपकार की श्रृंखला में वृक्ष सबसे अधिक परोपकारी है। कहा भी है ।।

 तरूवर सरवर संत जन चौथा वर्षे मेह, परमार्थ के कारणें चारों धारी देह। 

गुरु जम्भेश्वरजी के पास में लोग आ करके पूछा करते थे कि हे देव ! यहां मरूभूमि में हर वर्ष भयंकर अकाल पड़ जाते हैं इसका कोई उपाय बतलाइये। तब जम्भेश्वरजी ने उनसे ही कहा था ।।रूंख लीलो नहिं घावैं। हरे वृक्ष नहीं काटना। तभी से लोगों ने हरे वृक्षकाटने बंद कर दिये फिर वापस वर्षा का आगमन हुआ तथा  खुशहाली हो गयी। आज की तरह बिना किसी यंत्रों द्वारा भी जम्भदेव जी इस बात को जानते थे, इसीलिए लोगों को बतलाया। नियम का पालन जब तक होता रहा तब तक तो खूब वर्षा होती रही। धीरे-धीरे बिश्नोई इतर लोगों ने वन काट डाले जिससे पुनःअकाल का विभीषिका का मुँह देखना पड़ा तथा वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है। वर्तमान में जबकि वायु प्रदूषण चारों ओर फैल चुका है। सांस लेना मुश्किल हो गया, भयंकर अकाल पड़ने लगे तब हमारे विश्व के वैज्ञानिकों को चेता हुआ इस समस्या का समाधान खोजने लगे तो कोई उपाय नजर नहीं आया। केवल एक ही उपाय सामने है वह है हरे वृक्षों की रक्षा। इस भयावह स्थिति से सैकड़ों वर्ष पहले गुरु जम्भदेव जी ने सचेत किया था। उसी को ही हमें आज स्वीकारना पड़ रहा है। जोधपुर से दक्षिण पूर्व दिशा में खेजङी वृक्ष की रक्षा करते हुए 363 स्त्री-पुरुषों ने स्वेच्छा अपने प्राणों का बलिदानदिया था। जिसका चित्रण तत्कालीन कवि गोकुल जी ने अपनी साखी में किया है तथा इसी का विस्तार रूप से वर्णन जम्भसागर में साहब राम जी ने भी किया है। भले ही यह घटना इतिहास में नहीं आ सकी किन्तु सत्यता से नकारा नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त और भी छोटी-मोटी कई घटनायें हरे वृक्ष रक्षार्थ हो चुकी हैं। एक खेजङी का वृक्ष मानव के लिए बहुत ही परोपकारी सिद्ध हुआ है। यह वृक्ष छाया, फल, फूल,खाद, वर्षा, अच्छी फसल, ईधन के  लिए सुखी लकड़ी इत्यादि असंख्य जीवनदायिनी वस्तुयें प्रदान करता है। सदा ही धूप गर्मी, लू, ठण्ड सहन करके शीतलता आदि प्रदान करने वाले को बेरहमी से काट डालना कहा तक का न्याय है इसी बात को सचेत करने वाले सर्वप्रथम युग पुरुष गुरु जम्भेश्वर ही थे। तथा उनकी आज्ञा को स्वीकार

करके प्राणों का बलिदान देखकर रक्षाकरने वाले बिश्नोई ही थे।

साभार: जम्भसागर
लेखक: आचार्य कृष्णानन्द जी
प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 




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