दोनों समय संध्या करना : 29 नियम बिश्नोई

जंभेश्वर भगवान के 29 नियम: सातवां नियम (संध्या) भावार्थ सहित


दोनों समय संध्या करना : 29 नियम बिश्नोई

दोनों समय संध्या करना :  प्रातःकाल सूर्योदय तथा सांयकाल सूर्यास्त समय को संध्या समय कहते हैं। उस समय रात्रि तथा दिन की संधी वेला होती है।

प्रातः काल की संधी वेला में तो रात्रि की समाप्ति तथा दिन का आगमन होता है । तथा सायं समय तो दिन की विदाई और रात्रि का आगमन होता है। ऐसी वेला ही पवित्र मानी जाती है क्योंकि यह बेला हमें प्रातःकालीन जीवन यानी मानव शरीर प्राप्ति का संकेत करता है और दुपहरी जवानी और सायं वृद्धावस्था को प्राप्त होते हुए मृत्यु का संकेत देती है।

  दूसरे दिन पुनः नया जीवन प्राप्ति का संकेत देती है तथा प्रातःकाल सूर्योदय वेला में संध्या करके फिर हम दिन काकार्य प्रारम्भ करें तथा सांय सूर्यास्त के समय अपना कार्य छोड़कर पुनः परमात्मा की प्रार्थना रूपी संध्या करके विश्राम करें। शब्दवाणी में कहा भी है-


‘ताती बेला ताव न जाग्यो, ठाडी बेला ठारूं, बिम्बे बैला विष्णुन जंप्यो, तातै बहुत भयी कसवारूं।

संध्या उपासना तो वैदिक काल से ही परम्परा चली आयी है क्योंकि यह एक अति सुन्दर परम्परा थी जिसकी रक्षा करना परमावश्यक था। इसीलिए जम्भेश्वर जी ने 29 नियम में कहा दोनों समय संध्या करना ।

 प्रातः सूर्योदय के साथ तथा सायं भी सूर्यास्त के समय में हाथ-पांव धोकर या स्नान करके उतर की तरफ मुख करके एकान्त शुद्धस्थान में आसन लगाकर बैठें। आवश्यकतानुसार हाथ में माला लेकर या बिना माला भी परमात्मा विष्णु को हृदय में धारण करके मुख से ओ३म्- विष्णु इस महामंत्र का जपकरें। 

‘यज्जपस्तदर्थ भावनम्’ जिसका भी जप किया जाये। वैसी मानसिक भावना अर्थात् ध्यान भी करना चाहिये। ध्यानपूर्वक प्रेमभाव से लिया हुआ परमात्मा का नाम ही अनन्त गुण फल वाला होता है। परमात्मा विष्णु की महिमा स्मरण के लिए, परमात्मा के प्रति अनंत गुण फल वाला होता है।

विष्णु विष्णु भज मनवा, विष्णु जग आधार ।
विष्णु फळ अनंत रसीलो, ध्याता उतरे पार । 4 ।

- कविता विष्णु महिमा (जय खीचड़) 

परमात्मा विष्णु की महिमा स्मरण के लिए, परमात्मा के प्रति श्रद्धा से समर्पित होने के लिए वृहन्नवण संध्या का पाठ अवश्य ही करना चाहिये। ऐसी परम्परा तथा विधिविधान है। इस नियम का नित्यप्रति पालन करें। समय यदि ज्यादा नहीं दे सकते तो भी छोड़ना नहीं चाहिये। नियम का मतलब ही यही होता है कि अबाध गति से कार्यक्रम चलता रहे, बीच में टूटे नहीं, यही नियम की सार्थकता होती है।




साभार: जम्भसागर
लेखक: आचार्य कृष्णानन्द जी
प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 


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