प्रातःकाल में स्नान करना : 29 Rules Bishnoi

  प्रातःकाल में स्नान करना : 29 Rules Bishnoi


29 Rules Bishnoi  : तीसरा नियम (सेरा करो स्नान) भावार्थ सहित 



प्रातःकाल में स्नान करना:  प्रतिदिनः प्रातःकाल में ही स्नान करना चाहिये।

 सेरा उठै सुजीव छांण जल लीजियै, दांतण कर करै सिनान जिवाणी जल कीजियै

(बत्तीस आखड़ी, वील्हाजी)। 

प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम शौचादि क्रिया से निवृत होकर दांतुन करे, फिर छाणकर जल ग्रहण करके स्नान करें। यहीं से जीवन गति प्रारम्भ होती है। स्नान करने के पश्चात ही अन्य कोई घर का कार्य या पूजा पाठ हवनादिक हो सकता है।

बिना स्नान किये तो कुछ भी शुभकार्य नहीं हो सकता। रात्रि में हम लोग शयन करते हैं तो एक प्रकार की मृत्यु ही हो जाती है, बुरे स्वप्न आते हैं, आलस्य का आक्रमण हो जाता है जिससे शरीर अस्वस्थ, आलसी, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। कोई भी शुभ दिनचर्या नहीं बन पाती। इन्हीं सभी शारीरिक दोषों की निवृति के लिए प्रातःकाल स्नान का विधान किया है। प्रातःकालीन स्नान से शरीर शुद्ध पवित्र तथा स्वस्थ होगा तो इस शरीर में स्थित मन, बुद्धि आदि भी पवित्र होंगे तथा सभी कार्य सुरुचिपूर्ण और सफलतापूर्वक ही होंगे।

शब्द नं. 104 (जम्भवाणी) के प्रसंग में गुरु जम्भेश्वर भगवान ने वस्त्र, हाथी, घोड़ा, घी आदि के अत्यधिक दान से भी अधिक महत्वपूर्ण स्नान को स्वीकार किया है क्योंकि दान का प्रभाव तो क्षणिक होता है किन्तु स्नानादिक पवित्र दिनचर्याओं का प्रभाव दीर्घकालीन होता है इनसे जीवन का निर्माण होता है।

इस स्नान करने के नियम के कारण तो विश्नोई को अन्य लोग स्नानी कहते हैं और बड़ी ही श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि जो प्रातःकाल स्नान करेगा वह निश्चित ही परमात्मा के नाम का स्मरण, संध्या, हवनादिक शुभ कार्य करके उसके बाद ही अन्य कार्य करेगा। वह निश्चित ही धार्मिक व्यक्ति होगा तथा उनका अन्य लोगों से अधिक शरीर स्वस्थ रहेगा, प्रत्येक कार्य करने में सबसे आगे रहेगा। यही सभी कुछ एक स्नान की बदौलत से ही सम्भव हो सकता है। 

कुछ वर्ष पूर्व तक इस स्नान के नियम का पालन अच्छी प्रकार से होता था। छोटे बच्चे को भी विश्नोई के घर में बिना स्नान किये भोजन नहीं खिलाया जाता था, सभी के लिए स्नान करना अनिवार्य था। जिससे आगे चलकर आदत पड़ जाने से बिना स्नान किये भोजन नहीं कर सकते थे किन्तु इस समय कुछ शिथिलता नजर आ रही है। नियम की यह महत्वपूर्ण कड़ी यदि टूट जावेगी तो फिर यह श्रृंखला कैसे जुड़ पायेगी।

अन्य शास्त्रकार इस नियम की महत्ता को नहीं देख पाये थे इसीलिए अधिक चर्चा का विषय नहीं बन पाया किन्तु जाम्भोजी ने ठीक से पहचान करके अपने शिष्यों के प्रति बतलाया है। इसीलिए सभी के लिए पालनीय है।




साभार: जम्भसागर
लेखक: आचार्य कृष्णानन्द जी
प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 


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